
‘जयति अर्धनारीश्वर’
समानता में बाधक है वर्जनाएं
© डॉ सुधा मौर्य
महिलाओं के अधिकारों,अस्तित्व, अस्मिता एवं वर्जनाओं पर चर्चा की औपचारिकता हर वर्ष आठ मार्च को होती है। दुनिया भर में इसे महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। आपको थोड़ा अजीब लगेगा लेकिन मैं आज के दिन महिलाओं पर नहीं बल्कि पुरुषों के अधिकारों, अस्तित्व एवं ख़ासकर वर्जनाओं पर बात करना चाहती हूँ। आखिर पुरुष भी तो उसी ईश्वर की कृति है जिसकी सर्वोत्कृष्ट कृति स्त्री है।

पुरुष सृष्टि का सृज्यक्षमताशालिनी स्रोत एवं जीवनरूपी द्विपाद चक्रवाहिनी का एक सुदृढ पहिया है। सही है कि स्त्री एक शिशु को जन्म देने में सक्षम है। लेकिन उसकी यह सक्षमता पुरुष के बिना अधूरी है। यदि स्त्री को एक ख़तरनाक सेक्स कहकर उससे बचने की बात की जाती है तो पुरुष भी एक दृष्टि से सेक्स ही है। फिर दोनों में अंतर का होना जरूरी है क्या?

वस्तुतः वैश्विक मानव उद्भव का आधार स्त्री और पुरुष का सहयोग रहा है।यह दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे है। इसलिए पुरातनवादी सोच,मान्यताओं से बाहर निकल कर दोनों को समान अधिकार,अवसर,समानता मिलनी चाहिए।

अक्सर पुरुष के बारे में कहा जाता है कि तुम पुरुष हो यह नहीं कर सकते या यह करना तुम्हें शोभा नहीं देता। मान लीजिए एक पुरुष है वह जीवन में किसी कारणवश असफल हो जाता है तो कहा जाता है कि तुम कभी निराश नहीं हो सकते,तुम परिस्थिति के आगे रो नहीं सकते।पुरुष होने पर क्या भावनाएँ, संवेदनाएँ संज्ञाशून्य हो जाती है।क्या पुरुष नहीं रो सकता,उसकी भी संवेदनाएँ है,दिल है,वह भी भावनात्मक क्षमता से युक्त है तो वह भी रो सकता है और मुझे लगता है खुलकर रो सकता है। अक्सर कह दिया जाता है कि पुरुष के दर्द नहीं होता। तो क्या पुरुष पत्थर का बना है ?क्या उसे महसूस नहीं होता? अगर वह भी महसूस करता है तो उसे भी दर्द होगा और उतना ही होगा जितना स्त्री को होता है क्योंकि यदि स्त्री दया, करुणा, ममता,त्याग,प्रेम,समर्पण की अधिष्ठात्री है तो पुरुष भी उसी स्त्री से उत्पन्न उसी का अंश है। फिर वह क्यों नहीं रो सकता? क्यों नहीं दर्द में तड़प सकता? क्यों नहीं अपनी सम्वेदनाएँ मुखरता से अभिव्यक्त कर सकता?

पुरुषों के साथ यह भी कहा जाता है कि तुम्हें किसी भी परिस्थिति में शांत नहीं रहना है,अगर तुम शांत रहोगे तो तुममें मर्दानगी नहीं है।क्या मर्दानगी लड़ाई झगड़ा लाउड होने में ही है?क्या पुरुष किसी परिस्थिति को शांति से निपटा ले तो वह मर्द नहीं रह जाता? क्या किसी स्त्री के सामने मर्दानगी दिखाने का एक मतलब शारीरिक बल ही है।वह तो दया ,ममता, करुणा, प्रेम, त्याग,केयर करके भी अपनी मर्दागनी दिखा सकता है।क्या मर्दागनी सिर्फ़ शारीरिक क्षमता ही है।यदि स्त्रियोचित गुण पुरुष में भी समाहित है तो क्या गलत है?वह फिर तो एक समझदार, समर्पित और आइडियल पुरुष है जिसकी कल्पना हर स्त्री करती है क्योंकि वह उसे समझता है।
यदि स्त्रियों के मासिक धर्म होने पर यदि पति ने उसकी केयर कर ली,उसे थोड़ा आराम दे दिया,गर्म सेंकने की बॉटल दे दी तो क्या वह पुरुषोयोचित गुणों से वंचित हो गया।बिल्कुल नहीं। बल्कि वह एक आदर्शवादी यथार्थवादी पुरुष के रूप में हमारे समक्ष आता है जो स्त्री को उसके अधिकारों,उसके अस्तित्व, अस्मिता को समझता है।
बस करना यह है कि हर पुरुष को स्त्री को समझना होगा और स्त्री को भी अपने स्त्रियोचित गुणों का निर्वाह करते हुए पुरुष का भरपूर साथ देना होगा। दोनों को ही अपनी वर्जनाओं को तोड़ना होगा।कभी – कभी स्त्री ही सिर्फ़ नहीं सताई जाती पुरुष भी सताए जाते है और हताश होते है इसलिए चाहिए कि दोनों को ही इस हताशा से निकल कर स्वच्छ वातावरण में विकास का अवसर दिया जाए क्योंकि शिव भी शक्ति के साथ ही सुशोभित है।
भारत में लोकतंत्र है। अतः यहाँ सभी को अपने प्रति जागरूक होकर अपने दायित्वों का निर्वाह करना होगा। पुरुषत्व तो स्त्री को समान समझने और सम्मान देने में है।दोनों को एक दूसरे का सहयोगी बनना होगा ,दोनों को लैंगिक भेद से परे मनुष्य रूप में जीने का अधिकार है क्योंकि दोनों में शारीरिक भेद भले ही हो पर भेदभाव नहीं होना चाहिए और हमें दोनों के प्रति नज़र के साथ- साथ नजरिये के बदलाव की पुरजोर माँग कर सहअस्तित्व, शिव शक्ति के अर्धनारीश्वर रूप में दोनों को निर्बन्ध पँख फैलाकर उड़ान की असीम ऊँचाइयों पर अपनी संयुक्त शौर्यगाथा अंकित करनी होगी।