बाँहो में तेरी जब भी सिमटती हूँ
लगता है महफूज हूँ हर बला से
बालों को मेरी जब तू सँवारता है
लगता है सुलझी तेरे ही वजूद में
झुमकों को मेरी जब तू हिलाता है
लगता हिल उठी तेरी ही छुअन से
कुमकुम को मेरे जब तू लगाता है
लगता सज रही तेरी ही लगन से
पायल को मेरी जब तू खोलता है
लगता है खुल रही तेरे ही वदन में
हाथों में कंगन जब तू पहनाता है
लगता है बंध रही तेरे ही बन्धन से
तेरे दिल की अंगूठी को पहना है
अपने दिल वाली कोमल उंगली में
अब दिल से दिल हमारे यूँ मिले है
जैसे मिल रहा हो चंदा अपने गगन से
हम भी मिल गए एक दूजे से ऐसे
पानी में क्षीर मिलता हो मगन हो।।
© डॉ सुधा मौर्य